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यही कारण था कि बाद में इसी देश में ऐसे कितने विद्वान पैदा हो गए जिन्होंने वेद की इस समन्वयवादी शिक्षा मूलाधार ज्ञान, उपासना और कर्म में केवल एक को पकड़ कर दूसरे की निंदा करनी आरंभ कर दी शंकराचार्य जैसे महान व्यक्ति भी लोगों को ऐसे ही उपदेश देने लगे कि इन तीनों में "ज्ञान ही उद्धार का मार्ग है। कर्म बंधन में डालने वाला है इसलिए ज्ञानी व्यक्ति को कभी कर्म नहीं करना चाहिए। "इधर उपासना का डंका पीटने वालों ने भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ बतला कर ज्ञान और कर्म की अपेक्षा करने की प्रेरणा दी! गीता कार ने वेदों के आदर्श पर ज्ञान ,कर्म और उपासना के समन्वय का उपदेश दिया! पर इन प्रतिद्वंद्वी मनोवृति के आचार्यों ने उनके भी बीसीओ तरह के भाषणअपने -अपने सिद्धांत का पोषण करने वाले तैयार कर दिए। इसी संप्रदायवाद ने भारतीय समाज में फूट और निर्मलता को उत्पन्न किया जिसका अंतिम परिणाम देश का पतन और विदेशियों की अधीनता के रूप में प्रकट हुआ। यदि संगठित शक्तिशाली और कार्यक्रम बनना है तो इसके लिए सर्वश्रेष्ठ आदर्श वेदों का समन्वय ही है जिसका सारांश 'वेद' ने स्पष्ट शब्दों में प्रकट कर दिया है-
'अथर्ववेद' में भी यह समन्वय-युक्त भावों और सहयोग का आदेश असंदिग्ध रूप से दिया गया है-
पाठकों को अनेक मंत्र इसके विपरीत भी मिलेंगे, जिनमें शत्रु के नाश कि उनका धन और पशु छीन लेने कि, उनकी हर तरह से दुर्गति की बात कही गई है। विशेष रूप से अथर्ववेद में तो 'शत्रुनाश' के अनेक मंत्र, तंत्र और गुड उपायों का वर्णन किया गया है। पर उनको सार्वजनिक रूप से ग्रहण करने और प्रचार करने की बात नहीं है। जैसे अन्याय और अत्याचारी कौरवों के साथ युद्ध करने का समर्थन सबसे अधिक भगवान श्री कृष्ण ने किया और युद्ध काल में स्वयं तरह-तरह की गुप्त योजनाओं, चालाकियां और असत्य पूर्ण दिखलाई पड़ने वाली युक्तियों से भी काम निकाला, उसी प्रकार वेद में धर्म-विरुद्ध आचरण करने वाले शत्रुओं, यातूधानों, राक्षसों के विरुद्ध ही प्रायः शत्रु-भाव के उद्गार प्रकट किए गए हैं।अन्यथा संसार के सामान्य मनुष्यों को वेद-भगवान का उपदेश समन्वय ,सहयोग, संगठन, न्याय और सत्य के अनुकूल आचरण का ही है।
वेद और पशु हिंसा----
अनेक लोग वेदों में पशु हिंसा होने का आरोप करते हैं। कुछ भाष्यकारों ने वैदिक सूक्ततो का अर्थ करते हुए, पशुओं के मांस आदि से आहुति देने की बात लिखी है पर जब हम मूल संहिताओं पर विचार करते हैं तो यही मानना पड़ता है कि वेदों ने तो हिंसा के बजाय अहिंसा का उपदेश दिया है और असहाय प्राणियों पशुओं की रक्षा को परम धर्म माना है। इसलिए अगर किसी भाष्यकार ने अथवा किसी शाखा वालों ने वैदिक मंत्रों का पशुहिंसात्मक अर्थ किया है तो इसका कारण उनका व्यक्तिगत या सांप्रदायिक विचार ही रहा होगा। जिस प्रकार वर्तमान समय में हम भगवतगीता के ज्ञान, भक्ति, कर्म, वैराग्य, अहिंसा के समर्थक विभिन्न भाष्य देख रहे हैं, उसी प्रकार वेदों के भी लोगों ने क्षमता स्वमतानुयाई अलग-अलग तरह से भाष्य बनाए थे मध्यकाल में भारत में तांत्रिक संप्रदायों का बड़ा जोर रहा था वे बलिदान आदि को अपने धर्म का अंग मानते थे।
उन्होंने अपने संप्रदाय के समर्थन के लिए वेद-मंत्रों के वैसे ही अर्थ कर दिए हैं। प्राचीन काल में रावण को वेदानुयाई लिखा है, पर वह कदाचित वाममार्गी भी था। इसलिए जहां वेद ने सर्वत्र धृत, सोम, जो, तिल आदि की आहुति देने को बताया है, वहां मेघनाथ आदि राक्षसों के लिए रामायण में सदैव पशु अंगों द्वारा ही हवन करने की बात लिखी है। ऐसे व्यक्तियों को 'अथर्ववेद' में एक स्थान पर साफ शब्दों में 'मूर्ख' और 'निंदनीय' लिखा है।
"अविवेकशील और मूूढ. यजमान पशु-अंगों सेे हवन करतेेे हैं, यह निश्चय ही मूर्खता-पूर्ण और निंदनीय है। अपने से आत्मयज्ञ को करने वाले महापुरुष को बताइये। वे ही परमात्मा के सत्य-स्वरूप का उपदेश करने योग्य हो सकते हैं।" यज्ञ-विषय का विशेष रूप से विवेचन करने वाले 'यजुर्वेद' में कहा है--
पशुओं द्वारा पशुओं अर्थात पशुतत्व को प्राप्त होता है।पुरोडाशों से हवियों (अन्नादि ) को प्राप्त होता है। इसी प्रकार छंद (वेद-मंत्र ) से छंद को और वषट्कारों को प्राप्त होता है।
एक अन्य स्थान पर कहा गया है--
"पशुओं की रक्षा करो, गाय को मत मारो, बकरी को मत मारो, भेड़ को मत मारो, दो पैर वाले मनुष्य पक्षी आदि को मत मारो ,एक खूर वाले पशुओं (घोड़ा, गधा, आदि) को मत मारो, किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो।" 'ऋग्वेद' में गौ की उपयोगिता बतला कर उसकी रक्षा का इन शब्दों में आदेश दिया गया है--
हे अघ्न्ये ( हिंसा के आयोग्य ) भाग्यवती धेनु तृण ( घास ) सेवन करने वाली है । हमको भी भाग्यशाली बना । तू घास खाती हुई निर्मल जल पीने वाली हो।"
"अथर्ववेद" ( कांड 12 सूक्त 5 ) में गोहिंसक की दुर्गति का ऐसा भीषण और रोमांचकारी चित्र खींचा है कि उसे पढ़कर पापी से भी पापी व्यक्ति का दिल कांप जाता है।